श्रावण मास की की पूर्णिमा कैसे बदला जाता है जनेऊ

सनातन परंपरा में श्रावण मास की पूर्णिमा पर मनाए जाने वाले श्रावणी उपाकर्म का बहुत ज्यादा महत्व माना गया है क्योंकि महापर्व का संबंध उस पवित्र ब्रह्मसूत्र से है जिसके तीन धागे देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक माने जाते हैं. ब्रह्मसूत्र, यज्ञोपवीत या फिर कहें जनेऊ से जुड़ा पर्व साल भर में एक बार आता है, इसलिए लोग इसका बड़ी बेसब्री से इंतजार करते हैं. जिस श्रावणी उपाकर्म को आत्मशुद्धि का पर्व माना जाता है, उसकी तिथि, पूजा विधि और उसके धार्मिक महत्व के बारे में आइए विस्तार से जानते हैं|

क्या होता है श्रावणी उपाकर्म
हिंदू धर्म में ब्राह्मण समाज से जुड़े लोगों में यज्ञोपवीत या फिर कहें जनेऊ अनिवार्य माना गया है. यही कारण है कि इस समाज से जुड़े लोगों के लिए श्रावणी उपाकर्म विशेष महत्व रखता है. हालांकि इस पावन पर्व पर हिंदू धर्म से जुड़े सभी समाज के लोग पूरे विधि-विधान से अपने यज्ञोपवीत को बदलते हैं. उत्तर भारत में इस पावन पर्व को जहां श्रावणी उपाकर्म के नाम से जाना जाता है तो वहीं दक्षिण भारत में यह अबित्तम के नाम मनाया जाता है. श्रावणी उपाकर्म के दिन पूरे विधि-विधान से पुराने यज्ञोपवीत उतारकर नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है. खास बात यह कि इस पूरी धार्मिक प्रक्रिया को शुभ मुहूर्त में गुरु के निर्देशन में पूरा किया जाता है|

श्रावणी उपाकर्म की विधि
हिंदू धर्म से जुड़े इस पावन पर्व पर पुराने यज्ञोपवीत को बदलने के लिए लोग किसी नदी तीर्थ या पवित्र स्थान पर इकट्ठे होते हैं और गुरु के निर्देशन में इससे जुड़ी पूरी पूजा संपन्न करते हैं. पुराने जनेऊ को बदलने के लिए सबसे पहले गाय के दूध, दही, घी, गोबर, गोमूत्र और पवित्र कुशा को हाथ में लेकर पूरे साल भर किए गये जाने-अनजाने पाप कर्म का प्रायश्चित किया जाता है. इसके बाद ऋषियों का आवाहन पूजन किया जाता है. इसके बाद ‘ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्, आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः’ मंत्र को पढ़ते हुए नया जनेऊ धारण किया जाता है. अंत में गायत्री मंत्र का जप और हवन किया जाता है|

यज्ञोपवीत का धार्मिक महत्व
यज्ञोपवीत हिंदू धर्म के 16 प्रमुख संस्कारों में से एक है. हिंदू धर्म से जुड़ी तमाम तरह की पूजा और संस्कार के लिए भी यज्ञोपवीत का होना जरूरी माना गया है. जनेऊ से जुडे़ छह धागों में तीन धागे अर्धांगिनी और तीन धागे स्वयं की लिए माने जाते हैं. इसे हमेशा बाएं कंधे से चढ़ाकर दाये कमर की ओर करके पहना जाता है. हिंदू धर्म में मल-मूत्र का त्याग करते समय इसे कान में तीन बार चढ़ाने की परंपरा है. यज्ञोपवीत को न सिर्फ श्रावणी उपाकर्म पर बल्कि इसके जीर्ण-शीर्ण हो जाने, किसी की मृत्यु के बाद सूतक लग जाने के बाद बदलने का विधान है|

Edited by : Switi Titirmare 

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